शक्रवार दिनांक
12 अक्टूबर को केन्द्रीय सूचना आयुक्तों के सम्मेलन में सूचना
अधिकार को निजता में हनन न होने देने की शर्त पर इसके परिसीमन करने की बात प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह ने उठायी। सूचना अधिकार से लोगों को यदि यूपीए की कारगुजारियों की हर बुरी
सूचना प्रतिदिन मिल रही हो और सरकारी तंत्र इससे भयभीत हो तो ऐसे सम्मेलनों के आयोजन
पर ही स्वाभाविक सन्देह हो जाता है। सरकारी स्तर पर हुईं अनेकों वित्तीय गड़बडि़यों
के साक्ष्य उपलब्ध होने पर भी सरकार को यदि अविश्वास प्रस्ताव लाकर गिराने का कोई प्रयत्न
नहीं हो रहा है, तो इसकी पृष्ठभूमि में सरकार के सहयोगी दलों
और विपक्षी दलों की क्षुद्र सत्ता लोलुपता तथा इस बूते अवैध वित्त पोषण की उनकी मानसिकता
स्पष्ट प्रतीत होती है। ऐसे में इस युग की भारतीय राजनीति का धर्म लोक सेवा नहीं बल्कि
पूंजीतंत्र की साज-संभाल तक सीमित हो गया है। निश्चित रूप से सूचना अधिकार का परिसीमन
करने की इच्छा किसी लोक भलाई की चिंता से प्रेरित नहीं है। जनसाधारण के अधिकारों के
हनन पर फल-फूलते वित्ततंत्र ने लोकतंत्र का स्थान ले लिया है। सरकारी घोटालों में शीर्षस्थ
लोगों की संलिप्तता सार्वजनिक हो रही या होने की आशंका से ही सत्ताधारियों ने अतिशीघ्र
अपने अनुसार सूचना अधिकार कानून के संशोधन की हामी भर दी है। यदि सत्तासीनों में अंशमात्र
की नैतिकता भी शेष है तो उन्हें इस कानून के प्रयोग से सार्वजनिक हो रहे अवैध पूंजीगत
सरकारी व निजी कार्यों पर नियंत्रण रखते हुए दोषियों को दण्ड देने पर विचार करना चाहिए,
ना कि उलटवार करते हुए कानून को ही पंगु करने की मानसिकता के
अधीन उसे निष्प्रभावी बनाकर छोड़ देना चाहिए। सरकार की यह मंशा यदि पूरी होती है तो
इससे सूचना अधिकार के सशक्त प्रावधान प्रभावित होंगे। परिणामस्वरूप घपलों-घोटालों की
जो जानकारियों देशभर से इस कानून के उपयोग के अन्तर्गत अभी तक मिल रही हैं,
आगे उसमें व्यवधान आ जाएगा। विधि संहिता के आवश्यक उपबंधों को
यदि संशोधित किया भी जाता है अथवा इसमें आमूल परिवर्तन होते हैं तो स्वाभाविक है वे
सरकार के अनुकूल ही होंगे ना कि जनसाधारण के। ऐसे में जनसाधारण की लोकतांत्रिक अपेक्षा
को आघात लगने की पूरी आशंका है। सरकार की कमियों के विरुद्ध सड़कों पर उतर कर आंदोलन,
प्रदर्शन, धरने, अनशन कर रहे लोग अभी तक तो अहिंसात्मक तरीके से अपना-अपना विरोध
प्रकट कर रहे हैं। अचंभा नहीं होना चाहिए कि सरकार के सूचना अधिकार कानून के संशोधन
के विचार से, उनमें अपने विरोध के तरीकों में हिंसात्मक
परिवर्तन आ जाए! वैसे भी अब तक ऐसी स्थिति नहीं बनी है, इसलिए राजनेता आराम से हैं। यदि ऐसा विघटन प्रारंभ हो गया तो इसे संभालना कठिन
ही नहीं असंभव भी हो जाएगा। देश के किसी भी कानून की गठन की प्रक्रियाओं में सबसे जरूरी
ध्यान गरीबों और उपेक्षितों के कल्याण पर होना चाहिए। किसी भी देश, उसकी संसद, कार्यपालिका,
विधायिका, न्यायपालिका और अनेक
अन्य शीर्ष सत्ताधारी संगठनों का दायित्व, अपने अन्तर्गत
क्रियान्वित होनेवाली योजनाओं के केन्द्र में जनकल्याण, विशेषकर रोजी-रोटी के लिए संघर्षरत् लोगों के अच्छे जीवन निर्माण का विचार होना
चाहिए। यदि इस दिशा में सज्जनता दिखाई जाती है, तो विकास के रूप में हर नागरिक को उसकी व्यक्तिगत योग्यता का फल अवश्य ही प्राप्त
होगा।
हिन्दी दैनिक जनसत्ता मंगलवार 23 अक्टूबर,
2012 के संपादकीय पेज के समांतर कॉलम
2012 के संपादकीय पेज के समांतर कॉलम
में सूचना का डर शीर्षक के साथ प्रकाशित
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