दिल्ली बस बलात्कार मामले में प्रधानमंत्री ने अपने ताजा सम्बोधन में कहा कि पुलिस की सेवाओं में महिला सुरक्षा शीर्ष पर होनी चाहिए। अपने आवास पर आईपीएस प्रोबेश्नर्स के समूह से मुखातिब होते हुए मनमोहन सिंह ने सामूहिक बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में लोग शामिल क्यों होते हैं, यह पता लगाने के लिए व्यवहारगत और मनोचिकित्सकीय अध्ययनों पर जोर देने की बात कही। उन्होंने स्वीकार किया कि हम ऐसे समय में हैं, जहां चहुं ओर तनाव बढ़ रहा है। यदि प्रधानमंत्री को यह अहसास है कि हम भारतीय तनावों से घिरे हुए हैं तो स्वाभाविक रुप से उन्हें इसका ज्ञान भी होना चाहिए कि बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के जघन्य अपराधों से लेकर हिंसा, मारकाट, लूट-खसोट, गुंडागर्दी, बदमाशी समाज में क्यों व्याप्त है। देश के प्रधानमंत्री के पद पर सुशोभित व्यक्ति यदि बलात्कार जैसी घटनाओं के कारणों से अनभिज्ञ है तो यह बड़ी ही हास्यास्पद स्थिति है।
घटनाओं और दुर्घटनाओं के बाद उन पर रोना, दुख प्रकट करना भारतीय सत्ता के शीर्षस्थ नेताओं की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है लेकिन हर सामाजिक गतिविधि को पेशेवर बनाने और हर भारतीय नागरिक को नैतिक एवं मौलिक स्तर पर उत्तरदायी बनाने के लिए कभी कोई बड़े स्तर की कार्यवाही नहीं की जाती। प्रधानमंत्री जी सिर्फ जीडीपी और आर्थिक विकास से समाज में शुचिता नहीं आती। यदि ऐसा होता तो पोंटी चड्ढा और उसका भाईबन्धु आपस में उलझकर एक-दूसरे को नहीं मारते। अमेरिका में सम्पन्न अध्यापिका का खुशहाल बेटा अपनी मां और बच्चों सहित इक्कीस लोगों की हत्या नहीं करता। इस प्रश्न का हल कि सामूहिक बलात्कार क्यों होते हैं आपके शासनाधीन संचालित सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से पूछा जाए तो बेहतर होगा। क्योंकि पुलिस के आईपीएस प्रोबेश्नर्स या साधारण पुलिसवाले व्यक्ति के दिल दिमाग में झांककर उसके आगामी अच्छे-बुरे कदम का पता लगाने में हमेशा असफल रहेंगे। पुलिसिंग व्यवस्था को आप लाख आधुनिक सुविधाओं से लैस कर लें, परन्तु सामाजिक चारित्रिक पतन को इस व्यवस्था से सुधार पाना सम्भव नहीं हो सकेगा। आज अगर हिन्दी फिल्म उद्योग सरकार की झोली में राजस्व का बड़ा हिस्सा डाल पा रहा है तो इसका श्रेय कलात्मकता और कलाकारी की उस विधा को नहीं दिया जा सकता, जो किसी समाज के लिए सद्प्रेरणा होती है। बल्कि हिन्दी हो या विदेशी फिल्म उद्योग, आज इन दोनों ने समाज में खासकर बच्चों में हिंसा और अप्राकृतिक सेक्स रुझान को खतरनाक तरीके से बढ़ाया है। समाज का पढ़ा-लिखा तबका तो इन उद्योगों द्वारा परोसी गई फिल्म सामग्री को मनोरंजन मानता है क्योंकि उसके पास सामग्रियों को वास्तविक रुप में भोगने के विकल्प धनसंपन्न होने के कारण आसानी से उपलब्ध हैं, और वह इनके भोग-विलास में रत् भी रहता है, परन्तु समाज के अधिकांश और अनपढ़ मूर्ख तबके से उम्मीद करना कि वह फिल्मी परदे पर प्रस्तुत कामोत्तेजक सामग्री को अवास्तविक समझे और फिल्म देखने के बाद उसे भूल जाए, बड़ा ही अव्यावहारिक विचार है। परिणामस्वरुप अपनी काम पिपासाओं के लिए वे आसान शिकार ढूंढते हैं, जिसकी परिणति हम सबने दिल्ली बस बलात्कार की घटना के रुप में देखी है।
आज पत्र-पत्रिकाओं से लेकर टी.वी. और इंटरनेट तक में सेक्स सम्बन्धी सामग्री की भरमार है। कभी किसी समय जिस रतिक्रिया को अत्यंत रहस्यात्मक समझा जाता था, आज वह खुलेआम एक साधारण सी क्रिया में तब्दील हो चुकी है। अशिक्षित समाज से आशा करना कि वह सेक्स के खुलेपन को पेशेवर नजरिया प्रदान करेगा, बहुत बचकाना है। इसलिए पत्र-पत्रिकाओं, टी.वी. और इंटरनेट पर परोसी जानेवाली सेक्स की सामग्रियों पर तत्काल रोक लगनी चाहिए। प्रधानमंत्री जी सामूहिक बलात्कार के लिए लोग इसी से दुष्प्रेरित होते हैं। इसलिए पुलिस व्यवस्था को सुधारने की अपनी इच्छा में यह विचार भी शामिल करें कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन कार्य करनेवाले फिल्म प्रमाणन बोर्ड और सेंसर बोर्ड भी फिल्मों और विज्ञापनों के प्रसारण पर नजर रखे और हर उस सामग्री को बेहिचक हटाने से परहेज न करे, जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से समाज के निचले तबके को बुराई के लिए उकसाती हो।
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