समाज की सही दशा-दिशा बच्चों के
उचित पालन-पोषण पर निर्भर हैA यह बात सब जानते हैं और सबसे जरूरी
है। शासन-प्रशासन को भी इसकी जानकारी है। लेकिन क्या जानकारी भर होने से उद्देशय प्राप्त
किया जा सकता है\ प्रश्न ये है कि आज की किशोरवय और नौजवान पीढ़ी
इतनी आधुनिक क्यों हो गई कि उसे अपना विवेक इस्तेमाल करने की जरूरत ही महसूस नहीं होती।
यहां-वहां हर कहीं चाहे घर हो या विद्यालय, गली या
सार्वजनिक स्थल सब जगह बच्चों का अमर्यादित व्यवहार पुरातन सभ्यता को चुनौती दे रहा
है। स्थिति इतनी दुरूह हो गई है कि वे सार्वजनिक स्थानों पर प्रौढ़ व्यक्तियों की उपस्थिति
में ही असभ्य व असामाजिक हरकतें कर रहे हैं। उन्हें संकोच, शील, डर, बदनामी
के शब्द और इनका मतलब जैसे सिखाया ही नहीं गया है। हैरानी तब ज्यादा बढ़ जाती है, जब उनके
पास अपनी ऐसी हरकतों को सही बताने के कुतर्कों की भरमार होती है ओर वे इनका भरपूर इस्तेमाल
भी करते हैं। आखिर यह नौबत कैसे आ गई, क्या तरक्की का तात्पर्य अलग-अलग उम्र के लिए
निर्धारित पुरातन व्यवहार, संस्कृति,
मर्यादा को पाटकर समाज को बदतमीजी की घिनौनी दिशा देने से है\ क्या पुरातन
सुव्यवस्थित सामाजिक, पारिवारिक ढांचे को आधुनिक समाज
के नाम पर व्यक्ति-व्यक्ति की अच्छी-बुरी मंशा के सहारे ढोना उचित है\ क्या हमारे
शीर्षस्थ कर्ताधर्ताओं को इसकी सुधि नहीं है\ वे इस उच्छृंखल
किशोरवय मानसिकता को नैतिक और मौलिक साहित्य की सहायता से बदलने का प्रयास क्यों नहीं
करते\ क्या उन्हें बच्चों की समझदारी में अपनी मनमानी
के पिट जाने का खतरा नजर आता है\ निसंदेह खतरे के पिट जाने का ही
आभास है। इसीलिए वे उनके लिए जानबूझकर ऐसा रास्ता बनाने को दुष्प्रेरित हैं, करियर
व तरक्की के नाम पर जो उनके कदमों को अंतत दलदल में ही पहुंचा रहा है। आज शहरों के
खुले माहौल में शिक्षा इतनी औपचारिक हो गई है कि उसे सिर्फ धन अर्जन तक पहुंचने का
आधार मान लिया गया है। शैक्षिक पाठ्यक्रमों से भूगोल, खगोल, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-कला, संस्कृति, मानविकी, सामाजिक,
पर्यावरणीय और देशभक्ति जैसे विषय हटा दिए गए हैं। इनके स्थान पर आईटी, एमबीए जैसे
पूंजी पोषण के विषयों की भरमार है। तरक्की और विकास के नाम पर जिस मनुष्य का भला होना
चाहिए था, वह तो समय गुजरने के साथ एकात्म और परेशान ही ज्यादा
नजर आता है। सवाल ये है कि फिर ऐसी तरक्की किस काम की और इस तरह का विकास किसके लिए\ मानव विकास
की अवधारणा में जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत है, वह है मनुष्य
की मनुष्य के प्रति सद्भावना। इसकी प्राप्ति में आज जो सबसे बड़ा रोड़ा है, वह बच्चों
में बड़ों बुजुर्गों, गुरूओं
और अभिभावकों के प्रति बढ़ता असम्मान ही है। जब तक पीढ़ी-अंतराल सम्माननीय नहीं रहेगा
तब तक किसी भी किस्म की सामाजिक संचेतना और जागरूकता की उम्मीद करना बेमानी ही होगा।
हालीवुड-बालीवुड की असंख्य फिल्मों में जो कुछ दिखाया जा रहा है, उसका असर
ही आज की पीढ़ी पर सबसे ज्यादा है। इसलिए बड़े अभिनेताओं और कलाकारों का यह अहम कर्तव्य
है कि वे फिल्मों में अपनी भूमिका का चयन समाज और बच्चों को ध्यान में रखकर करें। हालांकि
इसमें सिर्फ कलाकारों और फिल्म निर्देशकों का ही दोष नहीं है। केन्द्रीय
फिल्म प्रमाणन बोर्ड की भी कुछ जिम्मेदारी है। उसे फिल्मों को सार्वजनिक रूप से प्रसारित
करने के प्रमाणपत्र बनाते समय देश की बिगड़ती सामाजिक स्थिति का खयाल तो रखना ही होगा।
हमें पथभ्रष्ट होती नौजवानी पीढ़ी को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की दिशा में फौरन
से पेशतर कुछ जरूरी काम करने होंगे।
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