आज दुनियाभर में फैले 80 प्रतिशत व्यापार का संचालन निजी कम्पनियों द्वारा किया
जा रहा है। इसके लिए कम्पनियां अपने यहां एक मजबूत प्रबंधन-तंत्र बनाती हैं। इसका मुख्य
कार्य कम्पनी की आर्थिक, व्यावसायिक, व्यापारिक, कानूनी कार्यप्रणालियों
और गतिविधियों पर बराबर नजर रखना होता है। आए दिन कम्पनियों को अपने और दुनिया के अन्य
देशों की सरकारी नीतियों की अहम जानकारियां एकत्र करनी पड़ती हैं। इनमें भी अपने और
संबंधित देश के कम्पनी मामलों के मंत्रालय द्वारा समय-समय पर जारी की गई रिपोर्टों
से अवगत होना बहुत जरुरी होता है, ताकि
कम्पनी और कर्मचारियों के उज्ज्वल भविष्य के महत्वपूर्ण निर्णय समय पर लिए जा सकें।
बकायदा इसके लिए कम्पनी अधिनियम, 1956 के
अधीन कम्पनियों को सरकारी नीतियों पर चलने के लिए भी निर्देश दिए जाते हैं।
किसी देश में सरकारी प्रतिष्ठानों, निजी और अर्द्ध-सरकारी
कम्पनियों का संचालन इतना कुशल तो होना ही चाहिए कि अपना फायदा देखने से पहले वे आम
आदमी की सामाजिक जरुरत का भी ध्यान रखें। इसी उद्देश्य के मद्देनजर उन्हें सरकारी
नियमों के अधीन रहकर अपना व्यापार संचालित करना होता है।
आज इस सदी में, जहां पैरों के जूते-चप्पल
से लेकर सिर के बालों तक के लिए असंख्य उत्पाद तमाम मशीनों से बनकर हम तक पहुंच रहे
हैं, मानव
जीवन बाह्य रुप से बहुत आसान नजर आता है। लेकिन इस आसान जीवन और सुविधा के एवज में
आत्म-संतुष्टि और सुख-चैन कहीं खो गया है। इस का प्रमुख कारण कम्पनी प्रबंधन का अपने
कर्मचारियों के प्रति पनपता उदासीन रवैया है। यह रवैया दिनोंदिन विकराल रुप धारण करता
जा रहा है। कम्पनियां उत्पाद की गुणवत्ता पर ध्यान देने की बजाय उपभोक्ता अधिकारों
के हनन की कीमत पर लाभ लालसा में पड़ी हुई हैं। उत्पाद गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए
उन्हें सुयोग्य कर्मचारियों की जरुरत नहीं है। वे तो बेहद कम वेतन पर सिर्फ बेशुमार
उत्पादन (क्वालिटी घटाकर) के मकसद से कर्मचारियों की नियुक्ति कर रहे हैं। कम्पनियों
में व्यक्ति विशेष की योग्यताओं और अतिरिक्त क्षमताओं का आकलन करने की किसी सुनियोजित
प्रणाली का अभाव हमेशा से विद्यमान है। ऐसी प्रणालियां अपने पुराने ढर्रे से बंधी हुई
हैं। परिणामस्वरूप काम बहुत ही नीरस और अनमन्य ढंग से पूरे होते हैं। योग्य कर्मचारी-वर्ग
भी रुटीन कार्यों से बुरी तरह ऊब जाते हैं और भेड़चाल में शामिल हो जाते हैं। देखा
जाए तो इन सब के कारण कम्पनी से ज्यादा नुकसान खुद कर्मचारियों को ही झेलना पड़ता है।
क्योंकि वे कम्पनी कर्मचारी होने के साथ-साथ वहां पर निर्मित होनेवाले उत्पाद के उपभोक्ता
भी होते हैं। कम्पनी में उनके अधिकारों का हनन तो होता ही है, उपभोक्ता बनकर भी उन्हें
ज्यादा रुपए देकर कम गुणवत्ता वाले उत्पाद लेने को विवश होना पड़ता है।
आज के दौर में अधिकांश कंपनियां, निर्माण इकाईयां, औद्योगिक घराने अपने
व्यस्त कार्यक्रम की वजह से अपने प्रबंधन तंत्र को ठीक ढंग से नहीं चला पा रहे हैं।
उन्हें इस पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। क्योंकि इस महत्वपूर्ण विषय की सतत्
अनदेखी से भविष्य में लेने के देने पड़ सकते हैं। अतः प्रबंधन तंत्र को समय रहते जाग
जाना चाहिए। कम्पनी-कर्मचारी के स्वस्थ संबंध को बनाए रखकर कम्पनियां अपना, कर्मचारी-वर्ग, देश और समाज का भला
तभी कर सकती हैं जब इस संबंध में बनाई गई समुचित नीतियों को रचनात्मक तरीके से व्यवहार
में लाया जाएगा। इसके लिए प्रत्येक कम्पनी के प्रबंधन वर्ग को कई क्षेत्रों के बारे
में अपने खुद के दृष्टिकोण को परिष्कृत करना होगा। उनका सबसे अहम दायित्व अपने कर्मचारियों
के कार्य का उचित मूल्यांकन करके उनका उत्साहवर्धन करना होना चाहिए। कम्पनी को खुद
के साथ-साथ कर्मचारियों के भविष्य की चिंता भी होनी चाहिए।
यदि कम्पनियों को देश और दुनिया के साथ आगे बढ़ना है तो
उन्हें अपने कर्मचारियों के चहुंमुखी विकास के लिए एक विस्तृत कार्य-योजना बनानी होगी।
और इसी के अनुरुप उन्हें अपनी व्यावसायिक गतिविधियों को चलाना होगा।
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