शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

हर जिले में अस्पताल, अच्छी पहल



हर जिले में अस्पताल, अच्छी पहल
अभी कुछ दिन पहले समाचार पढ़ा कि सरकार अब देश के हर जिले में एक बड़ा और सुविधाजनक चिकित्सालय खोलने पर विचार कर रही है। यह खुशखबरी इसलिए है कि मनुष्य के लिए दाना-पानी के बाद सबसे ज्यादा जरूरत स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधाजनक उपलब्धता ही है। अपने मूल निवास में ही यह सुविधा प्राप्‍त करने पर आम आदमी विश्वसनीय तरीके से सच्चा लोकतंत्र महसूस करेगा। उसे लगेगा कि उसके आधार पर खड़ा तंत्र अब वह सब उपलब्ध कराने लगा है, जिसकी जरूरत दशकों से थी। लेकिन दूसरी ओर दुख भी है कि मनुष्य की ऐसी आधारभूत आवश्यकता पर स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद अब विचार किया जा रहा है। केन्द्र सरकार से यही अपेक्षा है कि वह अपने इस महत्वपूर्ण विचार का अतिशीघ्र क्रियान्वयन करे। इस सार्वजनिक चिकित्सा सेवा की सरकारी कार्यप्रणालियों पर गहन अध्ययन होना चाहिए ताकि यह लंबे समय तक सुविधाजनक तरीके से आम भारतीयों को लाभ पहुंचाती रहे। भारत के प्रत्येक जिले में एक चिकित्सालय बनता है तो यह अच्छी उपलब्धि होगी। लेकिन इन चिकित्सालयों में प्रदान की जानेवाली स्वास्थ्य सेवाओं का निष्पादन समुचित तरीके से होना चाहिए। चिकित्सक, परिचर्या कर्मचारी-वर्ग और मरीजों के मध्य उचित तालमेल होना चाहिए, ताकि जिस मानव सेवाधर्म के लिए यह सेवा योजना बनी, उस पर निरंतर आगे बढ़ा जा सके। चिकित्सा सेवा क्षेत्र में कुछ उपाय ऐसे होने चाहिए जिन्हें अपनाकर चिकित्सकों, परिचर्या कर्मचारियों और चिकित्सालय के अन्य कर्मचारियों का अपने कार्य के प्रति शुरूआती उत्साह, ईमानदारी सदैव बनी रहे। इसमें सर्वप्रथम सभी चिकित्‍सा कर्मचारियों के कार्य- घंटों को कम किया जाना चाहिए। शल्य चिकित्सा जैसी आपात स्थिति को छोड़कर बाकी सेवाएं प्रदान करने के लिए कर्मचारियों के कार्य-घंटे 8 के बजाय 4 किए जाने चाहिए। चार-चार कार्य घंटों को दो पालियों में विभाजित किया जाए। कार्य-पालियों का परस्पर परिवर्तन किया जाना चाहिए। इससे जहां कार्य के प्रति चिकित्सकों और अन्य कर्मचारियों में उत्तरदायित्व और जोश की भावना घर करेगी वहीं चिकित्सा सेवा लेनेवालों को भी स्वास्थ्य सुरक्षा और गुणवत्ता का अहसास होगा।

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

आप भला तो जग भला

                       

अकसर हम समाज और इसके भौतिक-अभौतिक व्‍यवहारों से स्‍वयं को दुखी करते हैं। हम सोचते हैं कि स्थितियां, घटनाएं और आयोजन हमारे अनुकूल हों। ये हमारे अनुसार उपस्थित हों। कोई भी मनुष्‍य सकारात्‍मक अपेक्षा के साथ ऐसा होने की  कल्‍पना करता है। और ऐसी कल्‍पना के मूल में हर वस्‍तु व प्रत्‍येक सामाजिक व्‍यवहार सदभावना के साथ मौजूद रहता है। लेकिन क्‍या हमारे  मनोत्‍कर्ष के लिए चीजें, घटनाएं बदल जाएंगी? निसन्‍देह ऐसा नहीं होगा। अपनी अपेक्षा के अनुरूप चीजों के न होने, घटनाओं के न घटने का दुखभाव भूलने के लिए कुछ दिनों तक आप अपने परिवेश से दूर चले जाएं। आपका अपने शहर, घर और पास-पड़ोस से एक माह तक कोई सम्‍पर्क न हो। महीनेभर बाद वापस आने पर आप क्‍या पाते हैंयही कि कुछ नहीं हुआ। आपके मन मुताबिक कुछ नहीं बदला। सब कुछ पहले जैसा ही है। शहर, घर और पास-पड़ोस आपकी अनुपस्थिति में भी अपनी अच्‍छाईयों-बुराईयों के साथ पूर्ववत हैं। जब आपकी अस्‍थायी अनुपस्थिति से अपके परिवेश में बदलाव नहीं आया और वापस ऐसे परिवेश में आकर आपको इसका भान भी हो गया, तो फिर अपनी इच्‍छापूर्ति न होने का दुख हमें क्‍यों हो? क्‍यों हमको यह महसूस हो कि अमुक चीज को ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए, वातावरण इस तरह नहीं उस तरह होना चाहिए, समाज ये नहीं वो होना चाहिए! अपने परिवेश में कुछ दिन नहीं रहकर जब हमारे मनमाफिक कुछ नहीं बदला तो हमें ये अंदाजा हो जाना चाहिए कि हमारी मृत्‍यु के बाद भी ऐसा ही रहेगा। इतना तय हो जाने पर भी हमारी सामाजिक अपेक्षा में निरंतर वृद्धि होती रहती है। हमें लगता है कि कभी न कभी स्थितियां हमारे अनुकूल होंगी। यह कितनी मूर्खतापूर्ण उम्‍मीद होती है हमारी। वैसे उम्‍मीद का ये सपना हरेक आंखों में होता है। चूंकि हर व्‍यक्ति का अपना एक परिवार है और परिवारों से मिलकर समाज की उत्‍पत्ति होती है। इसलिए हर व्‍यक्ति की अपनी शारीरिक-मानसिक सुविधा के अनुरुप समाज से कोई न कोई उम्‍मीद जुड़ी रहती है। आम आदमी बनकर ऐसी उम्‍मीद करना न्‍यायसंगत भी है। जिस परिवार और समाज में बचपन से ही हमें तरह-तरह के संस्‍कार दिए जाने लगते हैं, तो कहीं न कहीं हममें इनके निरुपण का उद्देश्‍य सामाजिक आदर्शों के पालन-पोषण से ही जुड़ा हुआ होता है। यदि इनका पालन करते हुए हमें अपने जीवन में किसी पारिवारिक और सामाजिक कमी का अहसास होता है तो स्‍वाभविक रुप से उसकी पूर्ति के लिए हम ऐसे ही परिवेश से अपेक्षा रखेंगे। लेकिन बड़े होकर जब हमें परिवार और समाज के बहुरुप नजर आने लगते हैं, तो इनके बनाए संस्‍कारों, नियमों और आदर्शों में हमें एक खोखलापन प्रतीत होता है। हालांकि यह खोखलापन संस्‍कारों, नियमों और आदर्शों में नहीं बल्कि इनका पालन करवानेवालों में होता है। तब यह विचार कौंधता है कि नहीं यहां बहुत कमियां हैं। हमें जो पढ़ाया गया है वह तो ठीक है पर जो हमें पढ़ाते आए हैं, वे स्‍वयं ही पढ़ाई गई बातों पर नहीं चल रहे।  तब ऐसे समाज के लिए हमारे सामाजिक भावों में निराशा घर कर जाती है।
 जब व्‍यक्ति के मन-मस्तिष्‍क की कल्पित सुंदरता से किसी परिवेश को बदला नहीं जा सकता, तो कोई भी मानव क्‍यों अपेक्षाओं के मनोरोग से पीड़ित हो सारा शहर, सम्‍पूर्ण व्‍यवस्‍था किसी के गुजर जाने या मर जाने की स्थिति में भी यथावत रहती है। हमारे सामने अनेक उदाहरण हैं। महान पुरूष दुनिया में रहते हुए मृत्यु  को प्राप्‍त हुए। उनके नहीं होने पर क्‍या दुनिया और इसके शहर-गांव मौलिक चिंताओं, आशाओं और कल्‍पनाओं के अनुसार विद्यमान हैं, बिलकुल नहीं। फिर आप और मैं एक आम आदमी होकर क्‍या कर सकते हैं? हमारी क्‍या बिसात? हमें तो ये संकल्‍प करना है कि हम जो भी करें, उसका किसी पर, कहीं भी बुरा असर न पड़े। जिस चीज और व्‍यवस्‍था की अपेक्षा हम रखते हैं, उसके सृजन में, विद्यमान होने में हमारा योगदान क्‍या हो, इस पर हमें ध्‍यान देना होगा। तब ही चीजें और स्थितियां सही-सही आकार ले सकेंगी।

रविवार, 4 नवंबर 2012

कर्मचारियों के प्रति प्रबंधन-वर्ग का दायित्व



कर्मचारियों के प्रति प्रबंधन-वर्ग का दायित्व
आज दुनियाभर में फैले 80 प्रतिशत व्यापार का संचालन निजी कम्पनियों द्वारा किया जा रहा है। इसके लिए कम्पनियां अपने यहां एक मजबूत प्रबंधन-तंत्र बनाती हैं। इसका मुख्य कार्य कम्पनी की आर्थिक, व्यावसायिक, व्यापारिक, कानूनी कार्यप्रणालियों और गतिविधियों पर बराबर नजर रखना होता है। आए दिन कम्पनियों को अपने और दुनिया के अन्य देशों की सरकारी नीतियों की अहम जानकारियां एकत्र करनी पड़ती हैं। इनमें भी अपने और संबंधित देश के कम्पनी मामलों के मंत्रालय द्वारा समय-समय पर जारी की गई रिपोर्टों से अवगत होना बहुत जरुरी होता है, ताकि कम्पनी और कर्मचारियों के उज्ज्वल भविष्य के महत्वपूर्ण निर्णय समय पर लिए जा सकें। बकायदा इसके लिए कम्पनी अधिनियम, 1956 के अधीन कम्पनियों को सरकारी नीतियों पर चलने के लिए भी निर्देश दिए जाते हैं।

      किसी देश में सरकारी प्रतिष्ठानों, निजी और अर्द्ध-सरकारी कम्पनियों का संचालन इतना कुशल तो होना ही चाहिए कि अपना फायदा देखने से पहले वे आम आदमी की सामाजिक जरुरत का भी ध्यान रखें। इसी उद्देश्‍य के मद्देनजर उन्हें सरकारी नियमों के अधीन रहकर अपना व्यापार संचालित करना होता है।

      आज इस सदी में, जहां पैरों के जूते-चप्पल से लेकर सिर के बालों तक के लिए असंख्य उत्पाद तमाम मशीनों से बनकर हम तक पहुंच रहे हैं, मानव जीवन बाह्य रुप से बहुत आसान नजर आता है। लेकिन इस आसान जीवन और सुविधा के एवज में आत्म-संतुष्टि और सुख-चैन कहीं खो गया है। इस का प्रमुख कारण कम्पनी प्रबंधन का अपने कर्मचारियों के प्रति पनपता उदासीन रवैया है। यह रवैया दिनोंदिन विकराल रुप धारण करता जा रहा है। कम्पनियां उत्पाद की गुणवत्ता पर ध्यान देने की बजाय उपभोक्ता अधिकारों के हनन की कीमत पर लाभ लालसा में पड़ी हुई हैं। उत्पाद गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए उन्हें सुयोग्य कर्मचारियों की जरुरत नहीं है। वे तो बेहद कम वेतन पर सिर्फ बेशुमार उत्पादन (क्वालिटी घटाकर) के मकसद से कर्मचारियों की नियुक्ति कर रहे हैं। कम्पनियों में व्यक्ति विशेष की योग्यताओं और अतिरिक्त क्षमताओं का आकलन करने की किसी सुनियोजित प्रणाली का अभाव हमेशा से विद्यमान है। ऐसी प्रणालियां अपने पुराने ढर्रे से बंधी हुई हैं। परिणामस्‍वरूप काम बहुत ही नीरस और अनमन्य ढंग से पूरे होते हैं। योग्य कर्मचारी-वर्ग भी रुटीन कार्यों से बुरी तरह ऊब जाते हैं और भेड़चाल में शामिल हो जाते हैं। देखा जाए तो इन सब के कारण कम्पनी से ज्यादा नुकसान खुद कर्मचारियों को ही झेलना पड़ता है। क्योंकि वे कम्पनी कर्मचारी होने के साथ-साथ वहां पर निर्मित होनेवाले उत्पाद के उपभोक्ता भी होते हैं। कम्पनी में उनके अधिकारों का हनन तो होता ही है, उपभोक्ता बनकर भी उन्हें ज्यादा रुपए देकर कम गुणवत्ता वाले उत्पाद लेने को विवश होना पड़ता है।

      आज के दौर में अधिकांश कंपनियां, निर्माण इकाईयां, औद्योगिक घराने अपने व्यस्त कार्यक्रम की वजह से अपने प्रबंधन तंत्र को ठीक ढंग से नहीं चला पा रहे हैं। उन्हें इस पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। क्योंकि इस महत्वपूर्ण विषय की सतत् अनदेखी से भविष्य में लेने के देने पड़ सकते हैं। अतः प्रबंधन तंत्र को समय रहते जाग जाना चाहिए। कम्पनी-कर्मचारी के स्वस्थ संबंध को बनाए रखकर कम्पनियां अपना, कर्मचारी-वर्ग, देश और समाज का भला तभी कर सकती हैं जब इस संबंध में बनाई गई समुचित नीतियों को रचनात्मक तरीके से व्यवहार में लाया जाएगा। इसके लिए प्रत्येक कम्पनी के प्रबंधन वर्ग को कई क्षेत्रों के बारे में अपने खुद के दृष्टिकोण को परिष्कृत करना होगा। उनका सबसे अहम दायित्व अपने कर्मचारियों के कार्य का उचित मूल्यांकन करके उनका उत्साहवर्धन करना होना चाहिए। कम्पनी को खुद के साथ-साथ कर्मचारियों के भविष्य की चिंता भी होनी चाहिए।
     यदि कम्पनियों को देश और दुनिया के साथ आगे बढ़ना है तो उन्हें अपने कर्मचारियों के चहुंमुखी विकास के लिए एक विस्तृत कार्य-योजना बनानी होगी। और इसी के अनुरुप उन्हें अपनी व्यावसायिक गतिविधियों को चलाना होगा।


शनिवार, 3 नवंबर 2012

समाज से जुड़ें नौजवान




समाज से जुड़ें नौजवान
समाज की सही दशा-दिशा बच्चों के उचित पालन-पोषण पर निर्भर हैA यह बात सब जानते हैं और सबसे जरूरी है। शासन-प्रशासन को भी इसकी जानकारी है। लेकिन क्या जानकारी भर होने से उद्देशय प्राप्त किया जा सकता है\ प्रश्न ये है कि आज की किशोरवय और नौजवान पीढ़ी इतनी आधुनिक क्यों हो गई कि उसे अपना विवेक इस्तेमाल करने की जरूरत ही महसूस नहीं होती। यहां-वहां हर कहीं चाहे घर हो या विद्यालय, गली या सार्वजनिक स्थल सब जगह बच्चों का अमर्यादित व्यवहार पुरातन सभ्यता को चुनौती दे रहा है। स्थिति इतनी दुरूह हो गई है कि वे सार्वजनिक स्थानों पर प्रौढ़ व्यक्तियों की उपस्थिति में ही असभ्य व असामाजिक हरकतें कर रहे हैं। उन्हें संकोच, शील, डर, बदनामी के शब्द और इनका मतलब जैसे सिखाया ही नहीं गया है। हैरानी तब ज्यादा बढ़ जाती है, जब उनके पास अपनी ऐसी हरकतों को सही बताने के कुतर्कों की भरमार होती है ओर वे इनका भरपूर इस्तेमाल भी करते हैं। आखिर यह नौबत कैसे आ गई, क्या तरक्की का तात्पर्य अलग-अलग उम्र के लिए निर्धारित पुरातन व्यवहार, संस्कृति, मर्यादा को पाटकर समाज को बदतमीजी की घिनौनी दिशा देने से है\ क्या पुरातन सुव्यवस्थित सामाजिक, पारिवारिक ढांचे को आधुनिक समाज के नाम पर व्यक्ति-व्यक्ति की अच्छी-बुरी मंशा के सहारे ढोना उचित है\ क्या हमारे शीर्षस्थ कर्ताधर्ताओं को इसकी सुधि नहीं है\ वे इस उच्छृंखल किशोरवय मानसिकता को नैतिक और मौलिक साहित्य की सहायता से बदलने का प्रयास क्यों नहीं करते\ क्या उन्हें बच्चों की समझदारी में अपनी मनमानी के पिट जाने का खतरा नजर आता है\ निसंदेह खतरे के पिट जाने का ही आभास है। इसीलिए वे उनके लिए जानबूझकर ऐसा रास्ता बनाने को दुष्प्रेरित हैं, करियर व तरक्की के नाम पर जो उनके कदमों को अंतत दलदल में ही पहुंचा रहा है। आज शहरों के खुले माहौल में शिक्षा इतनी औपचारिक हो गई है कि उसे सिर्फ धन अर्जन तक पहुंचने का आधार मान लिया गया है। शैक्षिक पाठ्यक्रमों से भूगोल, खगोल, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-कला, संस्कृति, मानविकी, सामाजिक, पर्यावरणीय और देशभक्ति जैसे विषय हटा दिए गए हैं। इनके स्थान पर आईटी, एमबीए जैसे पूंजी पोषण के विषयों की भरमार है। तरक्की और विकास के नाम पर जिस मनुष्य का भला होना चाहिए था, वह तो समय गुजरने के साथ एकात्म और परेशान ही ज्यादा नजर आता है। सवाल ये है कि फिर ऐसी तरक्की किस काम की और इस तरह का विकास किसके लिए\ मानव विकास की अवधारणा में जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत है, वह है मनुष्य की मनुष्य के प्रति सद्भावना। इसकी प्राप्ति में आज जो सबसे बड़ा रोड़ा है, वह बच्चों में बड़ों बुजुर्गों, गुरूओं और अभिभावकों के प्रति बढ़ता असम्मान ही है। जब तक पीढ़ी-अंतराल सम्माननीय नहीं रहेगा तब तक किसी भी किस्म की सामाजिक संचेतना और जागरूकता की उम्मीद करना बेमानी ही होगा। हालीवुड-बालीवुड की असंख्य फिल्मों में जो कुछ दिखाया जा रहा है, उसका असर ही आज की पीढ़ी पर सबसे ज्यादा है। इसलिए बड़े अभिनेताओं और कलाकारों का यह अहम कर्तव्य है कि वे फिल्मों में अपनी भूमिका का चयन समाज और बच्चों को ध्यान में रखकर करें। हालांकि इसमें सिर्फ कलाकारों और फिल्म निर्देशकों का ही दोष नहीं है। केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की भी कुछ जिम्मेदारी है। उसे फिल्मों को सार्वजनिक रूप से प्रसारित करने के प्रमाणपत्र बनाते समय देश की बिगड़ती सामाजिक स्थिति का खयाल तो रखना ही होगा। हमें पथभ्रष्ट होती नौजवानी पीढ़ी को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की दिशा में फौरन से पेशतर कुछ जरूरी काम करने होंगे।