रविवार, 21 अगस्त 2016

आत्‍म-साक्षात्‍कार

श्रावण की पूर्णिमा बीते अभी कुछ दिन ही हुए। कल दोपहर से जो पवन सरसरा रही थी, चटक धूप में घुल-मिल जाने के बाद भी उसका एहसास शीतल था। शाम और रात को हवा का स्‍पंदन अत्‍यधिक शीतल हो चुका था। पूर्वी और पश्चिमी नभ के बीच दमकता चंद्रमा रात को ठंडी हवा सेे आच्‍छादित पृथ्‍वी से कितना सुंदर दिख रहा था। आकाश का रंग गाढ़ा नीला था। उस पर चांदी के रंग का चांद कितना मधुर लग रहा था। बादलों के बहुत छोटे-छोटे अंश गाढ़े नीले नभ और चांदी के रंग के चांद के साथ‍ कितने कीमती लग रहे थे। अाधी रात बीतने को थी। निवास स्‍थान का परिवेश घर की छत से सुनसान प्रतीत हो रहा था। लोग घरों में कैद हो चुके थे। कुछ लोगों काेे इस रात्रि सुंदरता में परस्‍पर बातें करते हुए, उन्‍हें सड़क पर चलते-फि‍रते हुए देखना अच्‍छा लगा। कई आकांक्षाओं और लिप्‍साओं मेंं डूबा मेरा तुच्‍छ मन न जाने कितनी जल्‍दी अपनेे खयाल बदलता रहा। कभी प्राकृतिक सुंदरता पर मन तरह-तरह के विचार करता तो कभी प्राकृतिक सुंदरता के जनक के बारे में सोचने लग जाता। कभी अपनी गरीबी पर स्थिर होकर अपनी रोजी-रोटी की चिंता से ग्रस्‍त मेरा हृदय मेरे शरीर के साथ निरंतर छत पर इधर-उधर टहलता रहा। अपनी परछाई चांदनी रात में रंग में तो पूरी काली दिखी पर उससे एक मोह सा उत्‍पन्‍न हो गया। सोचता रहा कि जीवों और निर्जीव वस्‍तुओं की परछाई तो कृत्रिम और प्राकृतिक दोनों रोशनियों में दिखती है पर कौन सी परछाई ज्‍यादा सत्‍य प्रतीत होती होगी। रात केे इस एकांत समय में आत्‍म‍साक्षात्‍कार करने का सबसे बढ़िया अवसर मिलता है। जब आत्‍मा से मौन संवाद होता है तो समझ में आता कि जीवन में मेरी हिस्‍सेदारी कितनी स्‍वार्थी है। मैं जीवन को कितने हलके में ले लेती हूँ। मेरे जीवन की जिज्ञासाएं निजी उपलब्धियों पर फूले नहीं समाने तक ही सिमट कर रह गईं। अपने से छूटकर दूसरे जीवन, मनुष्‍यों और प्राणियों के दुख-दर्द हमारे लिए अभिरुचियों को साकार करने की घटनाएं मात्र बन चुके हैं। कहीं कोई मरा, घायल हुआ, भूखा है या दूर पहाड़ों में आजकल किसी के घर पर वज्रपात हुआ तो हमारे वश में पीड़ितों के दर्द से जुड़ने की सदानुभूति भी नहीं होती। ऐसी दुर्घटनाओं पर हम कहानी, कविता, संवाद, चर्चा-विमर्श करके आत्‍मतुष्टि पा लेेते हैं या राजनेता के रूप में नकली हमदर्द बनने का स्‍वांग भर देते हैं, यह सोचकर मानवता के पतन का शिखर करीब दिखने लगता है। अपनी परोपकार भावना खोखली प्रतीत होने लगती है। अपने उद्गार अपनी ही दृष्टि में भ्रम प्रतीत होते हैं। रात्रि की यह स्‍वप्निल समयगति मुझे भौतिक जीवन से दूर ले गई। मैं देर रात तक शीतल पवन और शांत-निर्मल चांदनी में उड़ती-फि‍रती रही। मुझे इस समय को छोड़कर पतित भौतिक जीवन की सुबह से भय लगता है। 

शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

खेल में चमकने न चमकने की जिम्‍मेदारी शासकों की होती है

स्‍वामी विवेकानंद ने कभी कहीं किसी संदर्भ में कहा था कि खेल में बहाया गया पसीना, दिखाई गई एकाग्रता और क्रियान्वित किए गए संकल्‍प ही मनुष्‍य को सोच-विचार के सर्वोच्‍च शिखर पर विराजमान करते हैं। शायद प्रसंग आध्‍यात्मिक चर्चा का था। विचार-विमर्श के दौरान किसी विद्वान ने उनसे ऐसा प्रश्‍न किया था, तब उन्‍होंने ऐसा उत्‍तर दिया।
अब मुझे भी महसूस हो रहा है कि ऐसी कौन सी वैचारिक शक्ति है, जो विचारशक्ति के साथ शारीरिक शक्ति बढ़ाए। मेरे विचार से किसी भी तरह की क्रीड़ा में किया गया परिश्रम मनुष्‍य को आध्‍यात्मिक दृष्टि के सर्वोच्‍च शिखर पर भी पहुंचा सकता है। विचारक, विद्वान, धर्मगुरु, आध्‍यात्मिक पथ-प्रदर्शक होना इतना महत्‍त्‍वपूर्ण नहीं, जीवन में जितना महत्‍त्‍वपूर्ण खेलों में परिश्रम से खेल को उसके मौलिक और श्रेष्‍ठ परिणाम तक पहुंचाना होता है। और जो व्‍यक्ति ऐसा करता है निश्चित रूप से उसे परिभाषित तो खिलाड़ी के रूप में किया जाता है, लेकिन वह सभी महापुरुषों से श्रेष्‍ठ ही होता है।
आजकल पीवी सिंधू और साक्षी मलिक चर्चा में हैं। ओलंपिक की कुश्‍ती और बैडमिंटन प्रतियोगिताओं में इन दोनों ने भारत के लिए क्रमश: द्वितीय और तृतीय स्‍थान प्राप्‍त कर राष्‍ट्र का गौरव बढ़ाया है। आज हर वह आदमी जो किन्‍हीं समस्‍याओं और संसाधनों की कमी से खुद को कभी किसी खेल में आगे नहीं बढ़ा पाया या जो अपने समाज-परिवार-सरकार की ओर से प्रोत्‍साहन नहीं मिलने के कारण खेलों में नहीं जा पाया, इन दोनों की सफलता में अपनी सफलता देख रहा है और अपने शरीर के बाहर-भीतर गर्व का कंपन महसूस कर रहा है।
ऐसा नहीं कि इस देश में खेल की विभिन्‍न प्रतियोगिताओं में प्रतिभाओं की कमी हो। समस्‍या हमेशा से बस यहां यही रही कि ऐसी प्रतिभाओं को न तो परिवार-समाज के स्‍तर पर और ना ही सरकारी स्‍तर पर ऐसे प्रोत्‍साहन मिले, जिससे ये खेलों में देश का नाम उज्‍ज्‍वल कर पाते। इस आलेख की लेखिका भी विद्यालय में दौड़, ऊंची कूद और लंबी कूद जैसी खेल प्रतियोगिताओं में प्रतिभागिता करती थी। इस लेखिका को इन प्रतियोगिताओं में पुरस्‍कार भी मिले। लेकिन कहीं न कहीं परिवार, समाज और शासन-प्रशासन की खेलों की प्रति अनुदार दृष्टि और अनदेखी ही थी जो लेखिका ने इन क्रीड़ा क्षेत्रों को गंभीरतापूर्वक जीवन-लक्ष्‍य बनाने का विचार नहीं बनाया।
मैं खेल में कुछ हासिल नहीं कर पाने के लिए यहां एक स्‍त्री के साथ हुए भेदभाव की बात नहीं कर रही, बल्कि यहां समस्‍या यह रही कि हमारे घर-परिवार और समाज में ऐसा उन्‍नत दृष्टिकोण कोई नहीं रखता था कि क्रीड़ा क्षेत्र में बच्‍चों के लिए कुछ किया जाए। और यदि किसी का दृष्टिकोण जीवन के प्रति उन्‍नतिशील रहता भी था, किंतु वह अपने दृष्टिकोण को क्रियान्वित नहीं कर पाता था। जबकि ओलंपिक में विभिन्‍न क्रीड़ाओं की पदक तालिका में शीर्षस्‍थ रहनेवाले राष्‍ट्रों में यह उन्‍नतिशील दृष्टिकोण बहुत पहले अस्तित्‍व में आकर व्‍यापक स्‍तर पर क्रियान्वित भी होने लगा था। भारत का खेलों में पिछड़े रहने का सबसे बड़ा कारण पिछले सत्‍तर वर्षों का शासन और शासक रहे। इन्‍होंने देश के लिए उपयोगी सिद्ध होनेवाले मानव संसाधन का मूल्‍य कभी नहीं समझा। इनका एकमात्र उद्देश्‍य खुद को सत्‍तासीन रखना था। सत्‍ता किन गुणों के आधार पर संचालित होनी चाहिए थी और देश-समाज में कौन-कौन से मूल्‍य श्रेष्‍ठ मानवीय सामाजिक व्‍यवस्‍था के लिए स्‍थापित किए जाने चाहिए थे, इस संबंध में दशकों से सत्‍ताधारियों ने विचार नहीं किया। उनकी राजनी‍तियां व्‍यक्ति को मूल्‍यहीन करने के साथ-साथ समाज को विसंगतियों की ओर धकेलने पर ही टिकी रहीं जिससे अंत में देश, समाज और व्‍यक्ति के स्‍वभाव का तीव्र ह्रास हुआ, जिसकी कीमत हमें केवल खेल में पिछड़ने के रूप में ही नहीं अपितु जाति, धर्म, संप्रदाय, परिवार में विघटन होने और सर्वोपरि मानवता से हीन हो जाने के रूप में भी चुकानी पड़ रही है।
आज जो लोग भारतीय खिलाड़ियों के पदक नहीं जीतने पर उंगली उठा रहे हैं, उन्‍हें यह अवश्‍य सोचना चाहिए कि खेल में वह देश चमकता है, जो अपने यहां के नागरिकों को सबसे पहले जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्‍ध कराता है। और जिस देश में लोगों को अपने होने या अपने मानवीय अस्तित्‍व पर ही धिक्‍कार होता रहा हो, वह भला खेल में वह भी ओलंपिक खेल में चमकता सितारा कैसे हो सकता था। खेल में चमकने या न चमकने की जिम्‍मेदारी देश पर शासन करनेवाले शासकों की होती है। और इस देश पर जिन्‍होंने पिछले साठ-सत्‍तर वर्षों से शासन किया, उन्‍होंने लोकतंत्र के नाम पर ठगी के न जाने कितने खेल अब तक खेले।

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

त्‍यौहार और उपलब्धियों से भरा दिवस

वैसे तो लोग एक दिन की बातों और उपलब्धियों को अगले दिन से भूलने लगते हैं। लेकिन एक दिन की इन उपलब्धियों पर अगर सिर्फ एक दिन जीवन जीने वालों के हिसाब से सोचा जाए तो यह एक दिन बहुत बड़ा जाता है। यह दिन जीवन से भी विशाल हो जाता है। अचानक इसका आकार इतना बढ़ जाता है कि इस एक दिन की बातें, घटनाएं और उपलब्धियां इतिहास बन जाया करती हैं।
आज का दिन ऐसा ही था। विशेषकर भारतीय लोगों के लिए यह दिन खेलों की सबसे बड़ी वैश्विक प्रतियोगिता ओलम्पिक खेल में अत्‍यंत महत्‍त्‍वपूर्ण रहा। आज भारतीय कुश्‍ती की महिला पहलवान साक्षी मलिक ने ओलंपिक प्रतियोगिता में तीसरा स्‍थान प्राप्‍त कर तांबे का पदक जीता। इसके बाद बैड‍मिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधू ने ब्राजील के रिया डी जेनेरियो में चल रहे ओलंपिक खेलों की बैडमिंटन प्रतिस्‍पर्द्धा के सेमि फाइनल में जापान की खिलाड़ी नोजोमी ओकूहारा को सीधे सेटों में 21-19 और 21-10 से हराकर इस प्रतिस्‍पर्द्धा के फाइलन में स्‍थान पक्‍का कर लिया। इस विजय के साथ सिंधू ने भारत के लिए महिला बैडमिंटन में रजत पदक सुनिश्चित कर लिया। यदि पीवी सिंधू फाइनल में भी विजय प्राप्‍त करती हैं तो वे ओलंपिक में बैडमिंटन की प्रतिस्‍पर्द्धा में भारत के लिए प्रथम स्‍वर्ण पदक विजेता होंगी।
आज एक अरब पच्‍चीस करोड़ की जनसंख्‍या वाले भारत देश में साक्षी मलिक और पीवी सिंधू चमकते सितारे बनकर उभरे हैं। जब तक इस वर्ष के ओलंपिक खेल चलेंगे और जब तक इन खेलों का खुमार लोगों पर चढ़ा रहेगा तब तक साक्षी और पीवी भारतीय लोगों के दिलों में राज करेंगी। विभिन्‍न खेलों के खिलाड़ी और खेलप्रेमियों के लिए तो ये देवियां खेल विभूति बन चुकी हैं। 
आइए हम सब इस उपलब्धियों से भरे और रक्षा बंधन त्‍यौहार के साक्षी दिवस को जीवनभर गले से लगाकर रखें। अपने बच्‍चों और हर योग्‍य बच्‍चे को खेलकूद और पढ़ाई में आगे बढ़ाने का संकल्‍प लें। साथ ही सरकार को इन देवियों की उपलब्धियों से प्रेरित होकर आज यह संकल्‍प लेना चाहिए कि देश में प्राइवेट स्‍कूलों में जिस तरह पढ़ाई के नाम पर लूट-खसोट मची हुई है, वह उस पर तात्‍कालिक रूप से कोई कठोर कदम उठाए और निजी और सरकारी दोनों तरह के विद्यालयों को बच्‍चों के उज्ज्‍वल भविष्‍य के माध्‍यम के रूप में ही विकसित करें।