स्वामी
विवेकानंद ने कभी कहीं किसी संदर्भ में कहा था कि खेल में बहाया गया पसीना, दिखाई गई
एकाग्रता और क्रियान्वित किए गए संकल्प ही मनुष्य को सोच-विचार के सर्वोच्च
शिखर पर विराजमान करते हैं। शायद
प्रसंग आध्यात्मिक चर्चा का था। विचार-विमर्श के दौरान किसी विद्वान ने उनसे ऐसा
प्रश्न किया था, तब उन्होंने ऐसा उत्तर
दिया।
अब मुझे
भी महसूस हो रहा है कि ऐसी कौन सी वैचारिक शक्ति है, जो
विचारशक्ति के साथ शारीरिक शक्ति बढ़ाए। मेरे विचार से किसी भी तरह की क्रीड़ा में
किया गया परिश्रम मनुष्य को आध्यात्मिक दृष्टि के सर्वोच्च शिखर पर भी पहुंचा
सकता है। विचारक, विद्वान, धर्मगुरु, आध्यात्मिक
पथ-प्रदर्शक होना इतना महत्त्वपूर्ण नहीं, जीवन में
जितना महत्त्वपूर्ण खेलों में परिश्रम से खेल को उसके मौलिक और श्रेष्ठ परिणाम
तक पहुंचाना होता है। और जो व्यक्ति ऐसा करता है निश्चित रूप से उसे परिभाषित तो
खिलाड़ी के रूप में किया जाता है, लेकिन वह सभी महापुरुषों से
श्रेष्ठ ही होता है।
आजकल
पीवी सिंधू और साक्षी मलिक चर्चा में हैं।
ओलंपिक की कुश्ती और बैडमिंटन प्रतियोगिताओं में इन दोनों ने भारत के लिए क्रमश:
द्वितीय और तृतीय स्थान प्राप्त कर राष्ट्र का गौरव बढ़ाया है। आज हर वह आदमी जो
किन्हीं समस्याओं और संसाधनों की कमी से खुद को कभी किसी खेल में आगे नहीं बढ़ा
पाया या जो अपने समाज-परिवार-सरकार की ओर से प्रोत्साहन नहीं मिलने के कारण खेलों
में नहीं जा पाया, इन दोनों की सफलता में अपनी
सफलता देख रहा है और अपने शरीर के बाहर-भीतर गर्व का कंपन महसूस कर रहा है।
ऐसा नहीं
कि इस देश में खेल की विभिन्न प्रतियोगिताओं में प्रतिभाओं की कमी हो। समस्या
हमेशा से बस यहां यही रही कि ऐसी प्रतिभाओं को न तो परिवार-समाज के स्तर पर और ना
ही सरकारी स्तर पर ऐसे प्रोत्साहन मिले, जिससे ये
खेलों में देश का नाम उज्ज्वल कर पाते। इस आलेख की लेखिका भी विद्यालय में दौड़, ऊंची कूद
और लंबी कूद जैसी खेल प्रतियोगिताओं में प्रतिभागिता करती थी। इस लेखिका को इन
प्रतियोगिताओं में पुरस्कार भी मिले। लेकिन कहीं न कहीं परिवार, समाज और
शासन-प्रशासन की खेलों की प्रति अनुदार दृष्टि और अनदेखी ही थी जो लेखिका ने इन
क्रीड़ा क्षेत्रों को गंभीरतापूर्वक जीवन-लक्ष्य बनाने का विचार नहीं बनाया।
मैं खेल
में कुछ हासिल नहीं कर पाने के लिए यहां एक स्त्री के साथ हुए भेदभाव की बात नहीं
कर रही, बल्कि
यहां समस्या यह रही कि हमारे घर-परिवार और समाज में ऐसा उन्नत दृष्टिकोण कोई नहीं
रखता था कि क्रीड़ा क्षेत्र में बच्चों के लिए कुछ किया जाए। और यदि किसी का
दृष्टिकोण जीवन के प्रति उन्नतिशील रहता भी था, किंतु वह
अपने दृष्टिकोण को क्रियान्वित नहीं कर पाता था। जबकि ओलंपिक में विभिन्न
क्रीड़ाओं की पदक तालिका में शीर्षस्थ रहनेवाले राष्ट्रों में यह उन्नतिशील
दृष्टिकोण बहुत पहले अस्तित्व में आकर व्यापक स्तर पर क्रियान्वित भी होने लगा
था। भारत का खेलों में पिछड़े रहने का सबसे बड़ा कारण पिछले सत्तर वर्षों का शासन
और शासक रहे। इन्होंने देश के लिए उपयोगी सिद्ध होनेवाले मानव संसाधन का मूल्य
कभी नहीं समझा। इनका एकमात्र उद्देश्य खुद को सत्तासीन रखना था। सत्ता किन
गुणों के आधार पर संचालित होनी चाहिए थी और देश-समाज में कौन-कौन से मूल्य श्रेष्ठ
मानवीय सामाजिक व्यवस्था के लिए स्थापित किए जाने चाहिए थे, इस संबंध में दशकों से सत्ताधारियों
ने विचार नहीं किया। उनकी राजनीतियां व्यक्ति को मूल्यहीन करने के साथ-साथ समाज
को विसंगतियों की ओर धकेलने पर ही टिकी रहीं जिससे अंत में देश, समाज और व्यक्ति के स्वभाव
का तीव्र ह्रास हुआ, जिसकी
कीमत हमें केवल खेल में पिछड़ने के रूप में ही नहीं अपितु जाति, धर्म, संप्रदाय, परिवार में विघटन होने और
सर्वोपरि मानवता से हीन हो जाने के रूप में भी चुकानी पड़ रही है।
आज जो
लोग भारतीय खिलाड़ियों के पदक नहीं जीतने पर उंगली उठा रहे हैं, उन्हें यह अवश्य सोचना
चाहिए कि खेल में वह देश चमकता है, जो अपने यहां के नागरिकों
को सबसे पहले जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराता है। और जिस देश में लोगों को
अपने होने या अपने मानवीय अस्तित्व पर ही
धिक्कार होता रहा हो, वह भला खेल में वह भी
ओलंपिक खेल में चमकता सितारा कैसे हो सकता था। खेल में
चमकने या न चमकने की जिम्मेदारी देश पर शासन करनेवाले शासकों की होती
है। और इस देश पर जिन्होंने पिछले साठ-सत्तर
वर्षों से शासन किया, उन्होंने
लोकतंत्र के नाम पर ठगी के न जाने कितने खेल अब तक खेले।
बहुत सारगर्भित चिंतन...
जवाब देंहटाएंकैलाश जी आलेखाकलन हेतु धन्यवाद।
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